मंगलवार, 24 अगस्त 2010

व्यवहार की पाठशाला

कल जब घर आनें के लिए बस में चढ़ा तो देखा कि एक सीट को छोड़कर सारी सीटें भरी हुई है,और यह सीट भी महिलाएं शब्‍द के नीचे वाली हैं । इसलिए उस सीट को देखकर भी अनदेखा कर दिया । लेकिन मेरे साथ ही उस बस में चढ़ें एक कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन, जो देखनें से ही बीमार लग रहे थे, उस खाली सीट पर जा कर बैठ गए । उन सज्‍जन के महिला-सीट पर बैठनें के बाद अगले बस-स्‍टॉप से एक लड़की गोद में बच्‍चा लिए बस में आ गई । सभी महिला-सीटों पर महिलाएं ही बैठी थी, केवल उस एक सीट को छोड़कर, जिस पर वे बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन बैठे थे । उस लड़की को गोद में बच्‍चा लिए देखकर वे सज्‍जन अपनी सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्‍तता साफ झलक रही थी । वह लड़की समझ गई थी कि वे सज्‍जन उसके लिए सीट छोड़नें का प्रयास कर रहे हैं । इसलिए उसनें उन्‍हें विनम्रता से बैठे रहने के लिए कहा । उस लड़की का यह विनम्र व्‍यवहार देखकर एक अन्‍य सज्‍जन जो सामान्‍य सीट पर बैठे थे, खड़े हो गए और अपनी सीट उसे बैठनें के लिए दे दी । ना-नुकुर करते-करते अंतत: वह लड़की अपने गोद में उठाए बच्‍चें के साथ उस सीट पर बैठ गई । अभी चार-पॉंच बस-स्‍टॉप ही निकले थे कि अब एक जींस-टॉप पहनें मंहगा फोन हाथ में उठाएं एक लड़की बस में आ गई । उसनें उन बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन को वहां बैठे देखा तो झट से उनकी सीट के पास आकर उनसे महिला सीट होनें व खड़े होने का अनुरोध करने लगी । बेचारे बीमार सज्‍जन उस सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्‍तता के कारण खडे़ नहीं हो पा रहे थे । उनके साथ बैठी महिला ने उन्‍हें बैठे रहनें के लिए कहते हुए उस लड़की को उनकी असमर्थता व बीमारी का हवाला दिया और उसकी समर्थता का भान कराया । लेकिन वह लड़की उन 'आंटी' को डॉंटकर उन बीमार सज्‍जन से उठनें के लिए कहनें लगी । वे सज्‍जन फिर खड़ें होनें का प्रयास करने लगे । इस पर मुझसे व अन्‍य कई यात्रियों से सहा नहीं गया । सब उस लड़की को समझानें लगें । उम्र का व बस में ज्‍यादा भीड़ न होने का हवाला भी दिया । लेकिन जैसे उस पर कोई असर नहीं होना था, न हुआ । वह कंडक्‍टर को शिकायत करने लगी । जब कंडक्‍टर उसे समझानें लगा तो उसकी भाषा अब किसी पढ़ी-लिखी समझदार भारतीय लड़की की जगह एक असभ्‍य, गँवार लड़की की हो गई थी । कुछ देर बाद ही मेरा स्‍टॉप आ गया तो मैं बस से उतर गया ।


अब दूसरी घटना 'मैं अभी बाजार से आ रहा हूँ । एक दूकान पर मैं कुछ सामान खरीद रहा था। वह दुकानदार राखियां भी बेच रहा था । मैंनें देखा दो लड़कियां राखियां खरीद रही हैं । पहली, दूसरी को एक रेशमी धागा लेने के लिए कह रही थी लेकिन दूसरी वाली एक बड़ी सी चमकती हुई मंहगी-सी राखी खरीदना चाह रही थी । इसलिए उसनें पहली वाली लड़की को तर्क दिया कि मैं तो यही राखी खरीदूँगी, ताकि जब भैया को बॉंधूगी तो भैया से महंगा वाला स्‍मार्ट फोन मॉंग सकूँ । इस पर पहली वाली लड़की बोली और भैया ने महंगा वाला स्‍मार्ट फोन ना दिया तो । थोड़ी देर असमंजस में पड़ी वह लड़की बोली तो मैं भैया को राखी ही नहीं बाँधूगी । इस पर पहली वाली लड़की बोली इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्‍हें अपनें भाई से प्‍यार नहीं हैं । तु राखी केवल गिफ्ट लेनें के लिए बॉंधती हैं । इस पर वह तुनक कर बोली और किसलिए होता है यह त्‍यौहार, गिफ्ट लेने के लिए ही तो मैं राखी खरीद रही हूँ । नहीं तो घर में बहुत धागे पड़ें हैं । उनकी बात सुनकर मैं तो चला आया ।'

फिर सोचनें लगा कि क्‍या वजह हो सकती हैं इन युवतियों की इस सोच की? कहीं एकल परिवारों में रहनें का खामियाजा तो नहीं है यह सोच?  शायद शहरी जिंदगी की आपाधापी में बच्‍चें दादा-दादी, ताऊ-ताई व चाचा-चाची के निरंतर मिलनें वाले प्‍यार-दूलार व उसके साथ व्‍यवहार के ज्ञान से वंचित हो रहे हैं । एकल परिवार का विचार और वह भी नौकरीपेशा मॉं-बाप हो तो आजकल की युवा पीढ़ी त्‍यौहार का अर्थ ही भूल गई हैं । ये भविष्‍य की माताएं अपनें बच्‍चों को क्‍या संस्‍कार देंगी ? लेकिन फिर उस लड़की के व्‍यवहार का ख्‍याल आया जो गोद में बच्‍चा लिए आई थी ले‍किन व्‍यवहार में कितनी विनम्रता व संस्‍कार झलक रहे थे हालांकि उम्र दोनों की उम्र एक जैसी लग रही थी ।'


अच्‍छा, आप ही बताइयें कि क्‍या इन दोनों घटनाओं में लड़कियों के व्‍यवहार में कहीं से संस्‍कारों की झलक मिलती हैं ? क्‍या ऐसा ही व्‍यवहार आजकल के कुछेक युवकों में भी नहीं झलकता है ? क्‍या महिला सीट या आरक्षित सीट का यह अर्थ हैं कि उस पर बैठे किसी बुढ़े, अशक्‍त, बीमार व्‍यक्ति या बच्‍चें कों उठा दिया जाए, भले ही उसे कितनी भी परेशानी हो ? क्‍या आपकों लगता है कि हमारी युवा पीढ़ी त्‍यौहारों के वास्‍तविक रूप-रंग को भूलती जा रही है और उसे आधुनिकता के नाम पर बिगाड़ रही है ?


प्रश्‍न तो अनेक हैं । लेकिन सोचना हमें ही हैं कि क्‍यों नहीं हम अपनें बच्‍चों को त्‍यौहार, परिवार व रिश्‍तों के वास्‍तविक महत्‍व को समझातें ? क्‍यों हम उन्‍हें मनचाहा करनें की छूट देते-देते संस्‍कारहीन बना रहे हैं ? क्‍या इसके लिए व्‍यवहार की पाठशाला लगानी होगी ?

- अरविन्‍द पारीक

बुधवार, 11 अगस्त 2010

सफेद और काले कौओं की कहानी

आज काले कौओं ने सभा बुलाई थी । कार्यसूची में बस एक ही विषय था –किसी देश में सफेद
कौओं में से धनी-मानी दो कौओं द्वारा यह निश्‍चय किया जाना कि वे अपनी आधी संपति
दान करेंगें । उन्‍होंनें अपने निश्‍चय में उस देश के कुछ अन्‍य कौओं को भी शामिल
कर लिया था कि वे भी अपनी आधी संपति दान करें । इस तरह लगभग 13 सफेद कौए यह निश्‍चय
कर चुके थे ।


अब उन दोनों कौओं को लगा कि यदि हमारी संपति आधी हो जाएगी तो संपूर्ण विश्‍व में हम
बहुत पीछे हो जाएंगें । वे जानते थे कि अनेकों काले कौओं के पास भी अथाह संपति है ।
इसलिए उन्‍होंनें काले कौओं को भी अपनी संपति दान करने का न्‍यौता भेज दिया ।


यह काले कौओं के प्राचीन संस्‍कार थे कि वे सफेद कौओं को सदैव अपने से श्रेष्‍ठ
मानते थे । वे उनकी बात कभी नहीं टालते थे या फिर टाल नहीं पाते थे, क्‍योंकि डरते
थे । यह डर भी पिछली पीढ़ी से सुना डर था जिसनें सदैव सफेद कौओं की प्रशंसा ही की
थी व उनकी क्रूरता की एक से बढ़कर एक कहानियां भी सुनाई थी । लेकिन इस तरह की उनकी
वह क्रुरता काले कौओं के लिए एक आवश्‍यकता नजर आती थी ।


वे सफेद कौओं की भाषा व बोली को भी श्रेष्‍ठ मानते थे । इसलिए जब भी किसी गंभीर
विषय पर चर्चा करते थे तो केवल सफेद कौओं की भाषा में । उस समय उनकी बात को समझ
पाना सबके बस की बात नहीं होती थी ।


खैर, जब सफेद कौओं का न्‍यौता काले कौओं को मिला तो वे असमंजस में पड़ गए । क्‍या
करें, क्‍या न करें ? काले कौए पहले ही अपने कई धर्मार्थ ट्रस्‍ट चलाते थे ।
उन्‍होंनें तो कभी सफेद कौओं को ऐसा करने के लिए नहीं न्‍यौता था । फिर सफेद कौए
ऐसा क्‍यों कर रहे हैं ? सभी को आश्‍चर्य था । हां, कभी-कभी सफेद कौए अपने किसी
फाउंडेशन के नाम से काले कौओं के देश में कुछ धन दे दिया करते थे । लेकिन इसके बदले
में काले कौओं ने भी कोई कसर ना रखी थी । वे अपने यहां के सबसे समझदार, चतूर,
विद्वान व सर्वाधिक पढ़े-लिखें काले कौओं को बिना किसी रोक-टोक के सफेद कौओं की
सेवा में जाने देते थे । भले ही काले कौओं ने उनकी विद्वता व ज्ञान की संवृद्धि पर
कितना ही खर्च किया हो ।

सफेद कौए इन्‍हीं के दम पर फल-फूल रहे थे । फिर भी बार-बार अपने देश में ऐसी
व्‍यवस्‍था करने का ढिढ़ोरा पीटा करते थे कि वे काले कौओं को इतनी आसानी से अपने
देश में नहीं आने देंगें । बेचारे काले कौए इतना सूनते ही डर जाते थे । फिर सफेद
कौए उन्‍हें जिस कीमत पर चाहते थे उस कीमत पर पा लेते थे । क्‍योंकि वे जानते थे कि
जो सबसे समझदार, चतूर, विद्वान व सर्वाधिक पढ़े-लिखें काले कौए हैं वे किसी भी कीमत
पर सफेद कौओं के देश में काम करने को तैयार थे ।


इसी पर सभा विचार कर रही थी । सभा में बातचीत सफेद कौओं की बोली में हो रही थी ।
इसलिए कुछ काले कौए बहुत परेशान थे । बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी । उनमें से एक
कौए ने अंतत: हिम्‍मत की और चिल्‍लाया कि यदि बातचीत इसी तरह सफेद कौओं की बोली में
होगी तो वह सभा का बहिष्‍कार कर देगा । बस इतना सुनना था कि वह सभा सब्‍जी बाजार बन
गई और ना जाने किन-किन भाषाओं और बोलियों में सभी काले कौए चिल्‍लानें लगे थे । ऐसे
में सभा में कुछ निर्णय ले पाना संभव ही ना था । सभापति ने सभा समाप्‍त कर दी ।
किसी ने इस घोषणा को भी नहीं सुना । लेकिन सभी काले कौए अपनी मर्जी से एक-एक कर सभा
से खिसक लिए ।

मीडिया वाले काले कौओं में भी दो जमात बन गई थी । एक सफेद कौओं की प्रशंसा में
कसीदे पढ़ रही थी और दूसरी उस काले कौए का गुणगान कर रही थी जिसने सफेद कौओं की
बोली में बातचीत को नकारा था । लेकिन रोचक बात ये थे कि अब चर्चा का विषय सफेद कौओं
द्वारा आधी संपति दान करने का निश्‍चय नहीं था । बल्कि चर्चा इस बात पर हो रही थी
कि उस आधी संपति से क्‍या-क्‍या किया जा सकता हैं । चर्चा दोनों ही पक्ष कर रहे थे
। इसमें कभी-कभी धनी काले कौओं की संपति की चर्चा भी हो जाती थी । पिछले एक सप्‍ताह
से बस यही कार्यक्रम, यही समाचार प्रस्‍तुत किए जा रहे थे । बेचारें मनोरंजन के लिए
तरस रहे काले कौओं को ना चाहते हुए भी निरंतर इस चर्चा का रसपान करना पड़ रहा था और
उधर नई-नई उपलब्धियां हासिल करने वाले कौए परेशान थे कि मीडिया को कैसे अपनी
उपलब्धि की जानकारी दें ।

सफेद कौओं को जब काले कौओं की सभा का समाचार मिला । तो वे समझ गए कि घी टेढ़ी उंगली
से निकालना पड़ेगा । उन्‍होंनें तत्‍काल अपना विशेष दूत एक अदना-सा सफेद कौआ काले
कौओं के देश में भेज दिया । पलक-पॉंवड़े बिछाए काले कौओं ने उसे इतना सम्‍मान दिया
कि वह जब अपने देश लौटा तो स्‍वयं को शेष विश्‍व का राष्‍ट्राध्‍यक्ष समझनें लगा और
बोल उठा कि काले कौए अपनी आधी संपति दान करना मान गए हैं ।

यह बयान काले कौओं के देश में सुनामी से भी बड़ा कहर बन कर आया । काले कौओं की
सरकार नें विपक्ष के देश को बेच देने के आरोपों से घबरा कर अपनी सफेद कौवी नेत्री
से सलाह मॉंगी और फिर सभा में घोषणा कर दी कि काले कौए अपनी आधी संपति अभी दान नहीं
करेंगें क्‍योंकि इस देश में अब गरीब कौओं की संख्‍या धनी-मानी कौओं से कम हैं ।
इसलिए जब तक यह सरकार इस संख्‍या को धनी-मानी कौओं की संख्‍या से ज्‍यादा नहीं कर
लेगी तब तक चैन से नहीं बैठेगी ।


इस घोषणा से बहुसंख्‍यक मध्‍यमवर्गीय कौओं में से अनेक कौओं की सांस रूक गई ।
क्‍योंकि अब जो होना था वह सिर्फ और सिर्फ इन कौओं के विरूद्ध ही होना था ।


- अरविन्‍द पारीक