शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
डर का सर्वे या सबै का डर
अरे छोड़ो बात तो सुनों । हां-हां सुनाओं आपका सर्वे क्या कहता है ? अरे सर्वे मेरा नहीं हैं, सर्वे तो किया है मैक्स बुपा हेल्थ इंश्योरेंस ने । जिसमें लोगों से पूछा गया कि उन्हें सबसे ज्यादा किससे डर लगता है ? तब तो उत्तर में युवाओं ने कहा होगा –हम किसी से नहीं डरते । अरे न... न... । तो फिर आतंक या जान जाने का डर होगा । अरे मेरे भाई जो डर निकला वह था बीमारी का डर । क्या बीमारी का डर ? युवा किसी बीमारी से डर गए । सुन कर ऐसा लगता है जैसे किसी बीमा एजेंट ने सर्वे किया हो ? अरे मेरे भाई सर्वे बीमा कंपनी ने ही तो किया है और सवाल युवाओं से किए गए हैं । अच्छा तब तो युवाओं को डरना ही था, ये बीमा वाले तो सभी को डराते ही हैं । तो आपनें सर्वे की बात नहीं सुननी । अच्छा.... अच्छा.... सुनाओं ।
तो सर्वे में पता चला कि हमारें युवाओं का दिल बड़ा कमजोर है । 25 फीसदी युवा मानते है कि उन्हें यह चिंता सताती है कि कहीं बुढ़ापे में उन्हें दिल का रोग ना हो जाए । कमाल है जिस रोग का डर युवावस्था में होता है और शत-प्रतिशत को हो सकता है, उससे बुढ़ापें में डर । बात कुछ हजम नहीं हो रही । मियां यदि बात को इसी तरह सुनोगे और बार-बार टोकोगे तो हजम नहीं होगी । ये युवा तो दिल की बीमारी से बीमार होने से डर रहे हैं । अच्छा तो बाकी 75 प्रतिशत तो निडर है । ये तो पता नहीं लेकिन 24 फीसदी बुढ़ापें में डायबीटीज होने से डरते हैं और 16 फीसदी को कैंसर से डर लगता है । चलो यह सुनकर अच्छा लगा कि कम से कम 35 प्रतिशत तो निडर है । अरे मैंनें ऐसा कब कहा ? तो फिर शत-प्रतिशत डरते हैं क्या ? ओफ्फों..... मुझे यह भी नहीं पता । तो फिर क्या पता है ?
यही कि इन सभी 12 देशों के 34 प्रतिशत युवा कैंसर से और 23 प्रतिशत अल्जाइमर्स जैसी बीमारियों से डरते हैं । अरे भैया तो फिर डराते क्यूँ हो, बस इतना कह देते कि 43 प्रतिशत युवा इन देशों में निडर है । वे किसी भी बीमारी से नहीं डरते ।
हां यही समझों, लेकिन यह भी जान लों कि इस सर्वे में सभी 12 देशों के 12262 लोगों से वृद्धावस्था के बारे में भी जानकारी ली गई थी । मजेदार बात ये है कि इनमें से कई देशों के 65 वर्ष से अधिक आयु के 67 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपने को चुस्त-तंदुरूस्त मानते हैं बूढ़ा नहीं । तो फिर तुम्हारें पेट में दर्द क्यों हो रहा है । अच्छा है बुढे़ जवान और जवान बुढ़े हो गए हैं । लो यह भी जान लों 70 से 80 वर्ष के जवां क्या कहते हैं ? कहतें हैं कि दिल से अभी तो मैं जवान हूँ ।
जरूर अशोक कुमार की फिल्म देखी होगी शौकीन ।
अब चुप क्यों हो गए और कुछ नहीं है बतानें को । अरे कुछ तो बोलों । क्या बोलुँ ? फिर कहोगें कि डरा रहा हूँ । नहीं .... नहीं....... अब कुछ नहीं कहूँगा । तो सुनों, सर्वे कहता है कि भारत के 53 प्रतिशत लोग बुढ़ापें को सहज भाव से लेते हैं और दार्शनिक अंदाज में कहते हैं कि एक न एक दिन तो सभी को बूढ़ा होना ही है । लेकिन बुढ़ापें की चिंता में समय से पहले ही बुढ़ा जाते हैं । जबकि इन देशों में 51 प्रतिशत बुढ़ापें का सामना करनें को तैयार नहीं हैं और 36 प्रतिशत ने तो अभी कुछ सोचा ही नहीं है बाकी इतनें बेफिक्र हैं कि जब जरूरत पड़ेगी तब सोचेंगें । तो अब बोलों क्या बोलते हों ? लग गई ना बुढ़ापें की चिंता ।
अरे नहीं मैं तो सोच रहा था कि यहां-वहां दिल लगानें वाले युवा समय से पहले बुढ़ा क्यों जाते हैं ? क्या मतलब ? तुम बीमा एजेंट हो गए हों या पेंशन प्लॉन बेच रहे हों ? अरे कभी दिल की बीमारी से डरातें हो कभी कैंसर से । जरा शरीर से कुछ मेहनत कराते रहों, इसे चलाते-फिराते रहों । बस किसी चीज का डर नहीं रहेगा । तो क्या आतंकवाद, बम-धमाकों और सड़क पर दुर्घटनाओं का डर भी खत्म हो जाएगा ? मुझे क्या पता ?
- अरविन्द पारीक
पाकिस्तान में बाढ़ शिक्षा बेज़ार
पाकिस्तान में भी हमारे देश की तरह अभूतपुर्व बाढ़ आई हैं । इस विनाशकारी बाढ़ के चलते पाकिस्तान की केन्द्र सरकार ने वित्तीय संकट का सामना करने के लिए विकास कोष में कटौती करने का फैसला लिया है । इस फैसले का परिणाम यह हुआ है कि उच्च शिक्षा आयोग को पिछले साल जहां 22.5 अरब रूपये का बजट मिला था वहीं अब इसे घटा कर 15.7 अरब रूपये कर दिया गया है । यानि विनाशकारी बाढ़ के चलते पाकिस्तान में शिक्षा का विनाश भी होना तय है । यह भी गौरतलब है कि स्वीकृत बजट में से केवल 1.5 अरब रूपये ही जारी किए गए हैं । यह जानकारी सभी समाचारपत्र व अन्य मीडिया के साधन दे रहे हैं ।
यहां सोचने वाली बात यह है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों को विनाशकारी बाढ़ के चलते यदि सरकारी खर्च में कटौती करनी ही थी तो क्यों नहीं मंत्रियों के विदेशी दौरों, शाही पार्टियों, व्यर्थ में बर्बाद किए जा रहे हथियार खरीद के सौदों व आंतकवादियों को दी जा रही सहायता पर रोक लगाई गई । संभवत: पाकिस्तान में भारत को सभी समस्याओं की जड़ के रूप में देखनें वाले चश्में पहनें बैठी सरकार को पाकिस्तान की ज्यादातर समस्याओं की जड़ शिक्षा की कमी दिखाई नहीं देती । इसका कारण संभवत: यह भी हो सकता हैं कि शिक्षित पाकिस्तान भारत विरोध के लिए एकजुट नहीं होगा । ऐसे में आंतकवादी व अलगाववादी ताकतें और एक इलीट पाकिस्तान कैसे अपनी रोटियां सेंक पाएगा ।
मेरा तो यही कहना हैं कि यह कटौती की कार्रवाई पाकिस्तान की मानसिकता को दर्शाती है । भारत में सरकार मदरसों से आगे निकल कर बच्चें शिक्षित हो पाएं व दुनिया से लोहा ले सकें की सोच रखती है लेकिन पाकिस्तान सरकार न केवल सरकारी शिक्षा प्रणाली को नष्ट करनें पर उतारू है बल्कि विकास कार्यो को भी ठप्प कर देना चाहती है ।
क्या हम अपनें पड़ोस में धारावी जैसी एक अबुझ झुग्गी बस्ती को झेल पाएंगें, जिसकी अंधेरी गलियों में पनप रही अलगाववाद व आतंकवाद की आग हमें ही लीलनें को आगें न बढ़ जाएं ? निस्:संदेह पाकिस्तान सरकार शिक्षा पर खर्च को बढ़ा कर ही पाकिस्तान को पाक-साफ बना सकती हैं व भारत के सानिध्य का लाभ उठाकर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत कर सकती है । बस इसके लिए सोच को बदलना होगा ।
- अरविन्द पारीक
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
आइये शोर मचायें
इसलिएभारत समेत दुनिया के 192 देशों ने वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र में वादा किया था कि वे 2015 तक 8 लक्ष्यों –भुखमरी और गरीबी को खत्म करना, सभी बच्चों को प्राइमरी शिक्षा उपलब्ध करवाना, महिला सशक्तिकरण और लिंग समानता को बढ़ावा देना, बाल मृत्यु दर, मातृत्व मृत्यु दर को काबू मे लाना, एचआईवी, मलेरिया जैसी बीमारियों से लड़ना, पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करना और विकास के लिए एक विश्वव्यापी साझेदारी तैयार करना –को हासिल कर लेंगें । इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ ने मिलेनियम डवेलपमैंट गोल (एमजीडी) या विकास लक्ष्य नाम दिया है । निस्:सन्देह यदि इन लक्ष्यों को हासिल किया जाता है तो देश में व्यापक परिवर्तन दिखाई देगा ।
लेकिन समस्या वही बस कंडक्टर वाली है कि इस परिवर्तन को लाएगा कौन ? बहुत सोचने विचारनें के बाद मुझे ख्याल आया कि हमारे देश में इस तरह का परिवर्तन दो ही वर्ग ला सकते हैं और वे हैं हमारे मंत्री-नुमा नेता और वरिष्ठ नौकरशाह । क्योंकि देश का सारा काम भले ही राष्ट्रपति के नाम से होता हो, क्या होना है व कैसे होना है ये सिर्फ और सिर्फ हमारे मंत्री-नुमा नेता और वरिष्ठ नौकरशाह ही निर्धारित करते हैं । इसलिए मेरे सौभाग्य या दुर्भाग्य से मैं ऐसे ही एक मंत्री-नुमा नेता और वरिष्ठ नौकरशाह से एक साथ मिला और पूछ बैठा –एमजीडी हासिल करने के लिए अब तो केवल पांच वर्ष ही बचे हैं और दस वर्ष बीत चुके हैं । क्या आप बताएंगें की हमारे देश की इस मामलें में क्या स्थिति हैं और क्या हम लक्ष्य पा लेंगें ?
दोनों ने एक-दूसरें के चेहरे की और देखा फिर मंत्री-नुमा नेता बोले देखिए हम जो भी कहेंगें वह हम दोनों का सम्मिलित जवाब है आप किसी एक का नाम ना लिखिएगा । क्योंकि देश की नैया को डुबोने व पार लगानें में हम साझेदार हैं । मैंनें हॉं में सिर हिला दिया । उन्होंनें जो कहा वह अक्षरश: एक साथ आपके सम्मुख है - आपकों पता ही है संयुक्त राष्ट्र हमें जगाने के लिए 'स्टेंड अप, टेक एक्शन, मेक नाइज' इवेंटस के अंतर्गत यूएन मिलेनियम कैंपेन के कार्यक्रम हमारे देश में कर रहा है । एक कार्यक्रम पुराने किले में कर चुका है । देश के कई हिस्सों में कार्यक्रम किए जा रहे हैं । हमनें भी कमर कस ली है । देख रहे हैं कि युएन कितनी राशि देता है व उसमें से कितनी राशि 'हमारी' भुखमरी और गरीबी मिटा सकती है । बच्चों को प्राइमरी तक क्या हमनें तो पूरी स्कूली शिक्षा के प्रबंध कर दिए हैं । कोई बच्चा अब फेल नहीं किया जा सकता । हो सका तो बच्चों को घर बैठे ही स्कूली शिक्षा पा लेने के प्रमाणपत्र दे दिए जाएंगें । चाइनीज सीख कर बच्चें चीं-चीं चाओं करेंगें तो विश्व को हमारी प्रगति का पता चलेगा भले ही वे ढंग से हिन्दी लिख-बोल ना पाएं । महिलाओं को सशक्त बनानें के लिए और लिंग समानता को बढ़ावा देने के लिए हम लिंग जांच अनिवार्य करने जा रहे हैं जब तक की स्त्री-पुरूष की संख्या बराबर न हो जाए । भले ही महिला आरक्षण ना कर पा रहे हों । बाल मृत्यु दर, मातृत्व मृत्यु दर को काबू मे लाने के लिए आंकड़ों की दोबारा जांच की जा रही है । हो सकता है उनमें त्रुटि हो । आप देखेंगें कि ये दर शीघ्र काबु में आ जाएंगी । एचआईवी, मलेरिया जैसी बीमारियों से लड़नें के लिए हम अमेरिका, युरोप व पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से पर्यटकों व मच्छरों के आवागमन पर पाबंदी लगा देंगें । पर्यावरण संरक्षण के लिए हम प्रत्येक घर में जापानी बोनसाई पद्धति से जंगल या पेड़-पौधे लगाना अनिवार्य बनानें संबंधी कानून ला रहे हैं और विकास के लिए एक विश्वव्यापी साझेदारी का कार्य तो यूएन के सहयोग के बिना हो ही नहीं सकता । फिर भी हमें विश्वास है कि हम 2015 तक एमजीडी को पानें के लिए तैयार हैं ।
यह जानकार मुझे भी लगा कि शायद संयुक्त राष्ट्र के 'स्टेंड अप, टेक एक्शन, मेक नाइज' इवेंटस के अंतर्गत यूएन मिलेनियम कैंपेन के कार्यक्रमों से हमारी नींद खुल चुकी है और हम परिवर्तन ले ही आएंगें । तभी तो यूएन भी शोर मचानें के लिए संगीत के कार्यक्रम आयोजित कर रहा है ।
- अरविन्द पारीक
रविवार, 12 सितंबर 2010
यह खबर कैसे हो सकती है ?
हाल ही में माननीय सांसद श्री वैश्य ने संसद में हिन्दी में पूछे गए प्रश्न का अंग्रेजी में जबाव दिए जाने की बात का पुरजोर विरोध किया था. लेकिन एक-आध खबरिया चैनल व समाचार-पत्रों को छोड़ कर किसी भी खबरिया चैनल या समाचारपत्र में इस खबर की दो पंक्तियां भी सुननें या पढ़नें को नहीं मिली. लेकिन टवीटर पर कौन वीआईपी अंग्रेजी में कैसे चहचहाया इसे लगभग सभी चैनल व समाचारपत्र दिखा रहे हैं. भले ही वे हिन्दी की रोटी खा रहे हों.
खैर इस बारे में और बात करने से पहले, आप यदि हिन्दी भाषा से परिचित हैं व देश में इसका विकास चाहते हैं तो ना जाने कितनी बार आपने संविधान के अनुच्छेद 343 का अध्ययन किया होगा जो बताता है कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी व लिपि देवनागरी होगी तथा भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप का प्रयोग किया जाएगा. आपने यह भी पढ़ा होगा कि संविधान के प्रारंभ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक जिन कार्यो के लिए ऐसे प्रारंभ से पहले अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहा है उन सभी कार्यो के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहेगा.
मैंनें सोचा चलिए उन सभी कार्यो की जानकारी जुटाते हैं कि ऐसे प्रारंभ से पहले अंग्रेजी का किन-किन कार्यो के लिए प्रयोग किया जाता रहा है. पहले तो नेट को ही खंगाल डाला. बहुत सी नई बातें पता चली लेकिन वह सूची कहीं नहीं मिली जिनमें उन कार्यो का जिक्र हो जो संविधान लागू होने से पहले अंग्रेजी में किए जाते थे या जिनमें अन्य किसी भारतीय भाषा का प्रयोग किया जाता था. फिर कुछेक बुजूर्ग विद्वानों से जानकारी चाही कि क्या उनकी जानकारी में ऐसी कोई सूची थी. लेकिन यहां भी निराश होना पड़ा. अलबत्ता इतना अवश्य हुआ कि वे अपनी याददाश्त के बल पर व माता-पिता से सुनें वे कार्य गिनानें लगें जो ऊर्दू या फारसी में किए जाते थे. पुस्तकॉलय आदि की खाक छानने पर कुछेक कार्यो की भाषा का उल्लेख तो अवश्य कई स्थानों पर पढ़ा. लेकिन मैं वह सूची नहीं खोज पाया जिसमें यह उल्लेख मिले कि उन सभी कार्यो में कौन-कौन से कार्य आते थे.
अत: मैं समझ गया कि ऐसी कोई सूची बनाई ही नहीं गई थी. अर्थात संविधान में पंद्रह वर्ष की जो शर्त रख कर/लगा कर हिन्दी को विकलांग बनाया गया था उसके साथ-साथ बैशाखियां भी हटा दी गई थी और फिर इसी अनुच्छेद के खंड-3 में पंद्रह वर्ष बाद भी कानुन बना कर अंग्रेजी के प्रयोग को सुनिश्चित करने का अवसर देकर हिन्दी भाषा की राजभाषा के रूप में स्थाई विकलांगता का बंदोबस्त भी कर दिया गया था.
इसी खोज के दौरान संविधान के अनुच्छेद 120 तथा 210 पर नजर गई. तो देखा कि इन अनुच्छेदों में क्रमश: संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा तथा विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा का उल्लेख है - भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद (अनुच्छेद 210 में यहां विधान-मंडल शब्द है) में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा. दोनों ही अनुच्छेदों के खंड (2) कहते हैं कि जब तक संसद (अनुच्छेद 210 में यहां विधान-मंडल शब्द है) विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात् यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो "या अंग्रेजी में" शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो.
एक आस बंधी की शायद ऐसे उपबंध न किए गए हों और "या अंग्रेजी में" शब्दों का उसमें से लोप हो गया हो व संसद और विधान मंडलों की भाषा सिर्फ हिन्दी या राज्य की राजभाषाएं ही रह गई हों. लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. हमारे देश में किसी भी आवश्यक विधि के निर्माण में देरी हो सकती हैं लेकिन राजभाषा की स्थाई विकलांगता के लिए विधि निर्माण में कभी भी देरी नहीं हुई.
यहां संविधान का उल्लेख करने का कारण है हमारी मानसिकता के बारे में बताना. हम कितने विद्वान थें कि संविधान के निर्माण के समय ही भविष्य के दर्शन कर लिए थे. हमें पता था कि भविष्य केवल अंग्रेजी का है, हिन्दी का नही. इसलिए हमनें संविधान में ऐसे प्रावधान किए.
अब प्रारंभ में उल्लिखित समाचार के बारें में लिखनें का कारण, वह यह है कि 14 सिंतबर का दिन फिर आ गया हैं. जिसे हम और आप हिन्दी दिवस के रूप में जानते हैं. लेकिन हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हिन्दी के बारे में नियमों की अवहेलना कौन कर रहा है ? यदि किसी सरकारी कार्यालय में राजभाषा हिन्दी के नियमों की अनदेखी हो रही है तो फिर यह खबर कैसे हो सकती है ? खबर तो केवल ऐसी सनसनी बन सकती है जो बिक सके. या फिर हमारे अंग्रेजीदां संवाददाताओं को लुभा सके. यह खबर कैसे हो सकती है कि हिन्दी दिवस फिर आ गया है लेकिन राजभाषा नियमों की अवहेलना हो रही है व राजभाषा के रूप में हिन्दी आज भी सक्षम क्यों नहीं बन पा रही है ? कारण केवल इतना है कि राजभाषा अधिनियम व नियमों की अवहेलना के लिए दंड का प्रावधान ही नहीं है. इसलिए हिन्दी पर खबर कैसे हो सकती है ?
- अरविन्द पारीक