समाचार था कि न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को मंजूरी देकर समाज को इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया और अब एक रिश्ते में रहनें अर्थात लिव-इन-रिलेशनशिप पर निर्णय देकर न्यायालय ने समाज को पुन: यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या सही है व क्या गलत?
निस्:संदेह यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर विचार किया जाना आवश्यक है. हमारे देश के अभिजात्य उच्च वर्ग या उच्च-मध्यम वर्ग द्वारा पश्चिमी सभ्यता से आए सांस्कृतिक आतंकवाद को जिस तरह स्वीकार किया जा रहा है उससे भारतीय संस्कृति का ह्रास होना निश्चित है. क्योंकि अभिजात्य उच्च वर्ग या उच्च-मध्यम वर्ग के क्रियाकलापों का अंधानुकरण हमारे देश का मध्यम वर्ग व निम्न मध्यम वर्ग करता है.
इन कृत्यों के पक्षधर यह तर्क देंगें कि इन रिश्तों को जीने वाले लोग ऐसा केवल अपने घर में करते हैं. इन रिश्तों में दोनों साथियों की सहमति होती है । विवाह आदि पर होनेवाला खर्च बचता है. समाज को इससे क्या फर्क पड़ता है? तो क्या इन रिश्तों का पक्ष लेने वाले इन्हीं तर्को के साथ स्त्री वेश्यावृति, कॉलगर्ल आदि जैसे रिश्तों का भी समर्थन करेंगें. युरोप के कई देशों में तो ये कानूनी रूप से रोजगार के साधन है । फिर तो इसी तर्ज पर कहना होगा कि विश्व के कुछेक देशों में यह स्वीकार्य हैं तो हमारे देश में क्यों नहीं? अरे भाई, इससें तो देश की बेरोजगारी की समस्या अवश्य हल हो जाएगी.
मेरे एक मित्र ने न्यायालय के इस निर्णय पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इस तरह क्या भविष्य में पत्नियों या पतियों की अदला-बदली करने अर्थात 'वाईफ स्वैपिंग या हस्बैंड स्वैपिंग' और पुरूष वेश्याओं अर्थात 'जिगेलों' को भी समाज मान्यता देगा?
लेकिन पहले ही मुकदमों के बोझ से जूझ रहे न्यायालय क्या इन रिश्तों के टूटनें से पैदा होने वाले विवादों का समाधान कर पाएंगें? इन रिश्तों से जन्में बच्चों को उनका हक दिलवा पाएंगें? खुदा-न-खास्ता मजे-मजे के लिए इन रिश्तों कों अपनानें वालें अगर अपने बच्चों को स्वीकार करने से ही इंकार कर दें तो उनका पालन-पोषण कौन करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा की शादी के सब्ज-बाग दिखा कर बलात्कार करने वाले बलात्कारी इसे लिव-इन-रिलेशनशिप का नाम दे दें?
गैर-जाति में विवाह की बात पर ही बिदक जानें व 'सम्मान की खातिर हत्या'तक कर देने वाला समाज बिन ब्याह के साथ रहने के इस युवा चोंचलें को कभी स्वीकार नहीं कर सकता. अब तो केवल यह देखना शेष रह गया है कि न्यायालय और हमारा समाज पश्चिम के इन सांस्कृतिक आतंकवादी हमलों को नियति मान कर स्वीकार करता जाता है या फिर भारतीय संस्कृति के संदर्भों की मिसाइलों से इसका मुँह-तोड़ जबाव देता है.
इसलिए हे गालिब रोता है क्या, आगे-आगे देखिये होता है क्या?
- अरविन्द पारीक