कल जब घर आनें के लिए बस में चढ़ा तो देखा कि एक सीट को छोड़कर सारी सीटें भरी हुई है,और यह सीट भी महिलाएं शब्द के नीचे वाली हैं । इसलिए उस सीट को देखकर भी अनदेखा कर दिया । लेकिन मेरे साथ ही उस बस में चढ़ें एक कृशकाय प्रौढ़ सज्जन, जो देखनें से ही बीमार लग रहे थे, उस खाली सीट पर जा कर बैठ गए । उन सज्जन के महिला-सीट पर बैठनें के बाद अगले बस-स्टॉप से एक लड़की गोद में बच्चा लिए बस में आ गई । सभी महिला-सीटों पर महिलाएं ही बैठी थी, केवल उस एक सीट को छोड़कर, जिस पर वे बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्जन बैठे थे । उस लड़की को गोद में बच्चा लिए देखकर वे सज्जन अपनी सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्तता साफ झलक रही थी । वह लड़की समझ गई थी कि वे सज्जन उसके लिए सीट छोड़नें का प्रयास कर रहे हैं । इसलिए उसनें उन्हें विनम्रता से बैठे रहने के लिए कहा । उस लड़की का यह विनम्र व्यवहार देखकर एक अन्य सज्जन जो सामान्य सीट पर बैठे थे, खड़े हो गए और अपनी सीट उसे बैठनें के लिए दे दी । ना-नुकुर करते-करते अंतत: वह लड़की अपने गोद में उठाए बच्चें के साथ उस सीट पर बैठ गई । अभी चार-पॉंच बस-स्टॉप ही निकले थे कि अब एक जींस-टॉप पहनें मंहगा फोन हाथ में उठाएं एक लड़की बस में आ गई । उसनें उन बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्जन को वहां बैठे देखा तो झट से उनकी सीट के पास आकर उनसे महिला सीट होनें व खड़े होने का अनुरोध करने लगी । बेचारे बीमार सज्जन उस सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्तता के कारण खडे़ नहीं हो पा रहे थे । उनके साथ बैठी महिला ने उन्हें बैठे रहनें के लिए कहते हुए उस लड़की को उनकी असमर्थता व बीमारी का हवाला दिया और उसकी समर्थता का भान कराया । लेकिन वह लड़की उन 'आंटी' को डॉंटकर उन बीमार सज्जन से उठनें के लिए कहनें लगी । वे सज्जन फिर खड़ें होनें का प्रयास करने लगे । इस पर मुझसे व अन्य कई यात्रियों से सहा नहीं गया । सब उस लड़की को समझानें लगें । उम्र का व बस में ज्यादा भीड़ न होने का हवाला भी दिया । लेकिन जैसे उस पर कोई असर नहीं होना था, न हुआ । वह कंडक्टर को शिकायत करने लगी । जब कंडक्टर उसे समझानें लगा तो उसकी भाषा अब किसी पढ़ी-लिखी समझदार भारतीय लड़की की जगह एक असभ्य, गँवार लड़की की हो गई थी । कुछ देर बाद ही मेरा स्टॉप आ गया तो मैं बस से उतर गया ।
अब दूसरी घटना 'मैं अभी बाजार से आ रहा हूँ । एक दूकान पर मैं कुछ सामान खरीद रहा था। वह दुकानदार राखियां भी बेच रहा था । मैंनें देखा दो लड़कियां राखियां खरीद रही हैं । पहली, दूसरी को एक रेशमी धागा लेने के लिए कह रही थी लेकिन दूसरी वाली एक बड़ी सी चमकती हुई मंहगी-सी राखी खरीदना चाह रही थी । इसलिए उसनें पहली वाली लड़की को तर्क दिया कि मैं तो यही राखी खरीदूँगी, ताकि जब भैया को बॉंधूगी तो भैया से महंगा वाला स्मार्ट फोन मॉंग सकूँ । इस पर पहली वाली लड़की बोली और भैया ने महंगा वाला स्मार्ट फोन ना दिया तो । थोड़ी देर असमंजस में पड़ी वह लड़की बोली तो मैं भैया को राखी ही नहीं बाँधूगी । इस पर पहली वाली लड़की बोली इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हें अपनें भाई से प्यार नहीं हैं । तु राखी केवल गिफ्ट लेनें के लिए बॉंधती हैं । इस पर वह तुनक कर बोली और किसलिए होता है यह त्यौहार, गिफ्ट लेने के लिए ही तो मैं राखी खरीद रही हूँ । नहीं तो घर में बहुत धागे पड़ें हैं । उनकी बात सुनकर मैं तो चला आया ।'
फिर सोचनें लगा कि क्या वजह हो सकती हैं इन युवतियों की इस सोच की? कहीं एकल परिवारों में रहनें का खामियाजा तो नहीं है यह सोच? शायद शहरी जिंदगी की आपाधापी में बच्चें दादा-दादी, ताऊ-ताई व चाचा-चाची के निरंतर मिलनें वाले प्यार-दूलार व उसके साथ व्यवहार के ज्ञान से वंचित हो रहे हैं । एकल परिवार का विचार और वह भी नौकरीपेशा मॉं-बाप हो तो आजकल की युवा पीढ़ी त्यौहार का अर्थ ही भूल गई हैं । ये भविष्य की माताएं अपनें बच्चों को क्या संस्कार देंगी ? लेकिन फिर उस लड़की के व्यवहार का ख्याल आया जो गोद में बच्चा लिए आई थी लेकिन व्यवहार में कितनी विनम्रता व संस्कार झलक रहे थे हालांकि उम्र दोनों की उम्र एक जैसी लग रही थी ।'
फिर सोचनें लगा कि क्या वजह हो सकती हैं इन युवतियों की इस सोच की? कहीं एकल परिवारों में रहनें का खामियाजा तो नहीं है यह सोच? शायद शहरी जिंदगी की आपाधापी में बच्चें दादा-दादी, ताऊ-ताई व चाचा-चाची के निरंतर मिलनें वाले प्यार-दूलार व उसके साथ व्यवहार के ज्ञान से वंचित हो रहे हैं । एकल परिवार का विचार और वह भी नौकरीपेशा मॉं-बाप हो तो आजकल की युवा पीढ़ी त्यौहार का अर्थ ही भूल गई हैं । ये भविष्य की माताएं अपनें बच्चों को क्या संस्कार देंगी ? लेकिन फिर उस लड़की के व्यवहार का ख्याल आया जो गोद में बच्चा लिए आई थी लेकिन व्यवहार में कितनी विनम्रता व संस्कार झलक रहे थे हालांकि उम्र दोनों की उम्र एक जैसी लग रही थी ।'
अच्छा, आप ही बताइयें कि क्या इन दोनों घटनाओं में लड़कियों के व्यवहार में कहीं से संस्कारों की झलक मिलती हैं ? क्या ऐसा ही व्यवहार आजकल के कुछेक युवकों में भी नहीं झलकता है ? क्या महिला सीट या आरक्षित सीट का यह अर्थ हैं कि उस पर बैठे किसी बुढ़े, अशक्त, बीमार व्यक्ति या बच्चें कों उठा दिया जाए, भले ही उसे कितनी भी परेशानी हो ? क्या आपकों लगता है कि हमारी युवा पीढ़ी त्यौहारों के वास्तविक रूप-रंग को भूलती जा रही है और उसे आधुनिकता के नाम पर बिगाड़ रही है ?
प्रश्न तो अनेक हैं । लेकिन सोचना हमें ही हैं कि क्यों नहीं हम अपनें बच्चों को त्यौहार, परिवार व रिश्तों के वास्तविक महत्व को समझातें ? क्यों हम उन्हें मनचाहा करनें की छूट देते-देते संस्कारहीन बना रहे हैं ? क्या इसके लिए व्यवहार की पाठशाला लगानी होगी ?
- अरविन्द पारीक
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