शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

आगे-आगे देखिये होता है क्‍या?

समाचार था कि न्‍यायालय ने समलैंगिक संबंधों को मंजूरी देकर समाज को इसे स्‍वीकार करने के लिए बाध्‍य कर दिया और अब एक रिश्‍ते में रहनें अर्थात लिव-इन-रिलेशनशिप पर निर्णय देकर न्‍यायालय ने समाज को पुन: यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्‍या सही है व क्‍या गलत?

निस्‍:संदेह यह एक ऐसा प्रश्‍न है जिस पर विचार किया जाना आवश्‍यक है. हमारे देश के अभिजात्‍य उच्‍च वर्ग या उच्‍च-मध्‍यम वर्ग द्वारा पश्चिमी सभ्‍यता से आए सांस्‍कृतिक आतंकवाद को जिस तरह स्‍वीकार किया जा रहा है उससे भारतीय संस्‍कृति का ह्रास होना निश्चित है. क्‍योंकि अभिजात्‍य उच्‍च वर्ग या उच्‍च-मध्‍यम वर्ग के क्रियाकलापों का अंधानुकरण हमारे देश का मध्‍यम वर्ग व निम्‍न मध्‍यम वर्ग करता है.

इन कृत्‍यों के पक्षधर यह तर्क देंगें कि इन रिश्‍तों को जीने वाले लोग ऐसा केवल अपने घर में करते हैं. इन रिश्‍तों में दोनों साथियों की सहमति होती है । विवाह आदि पर होनेवाला खर्च बचता है. समाज को इससे क्‍या फर्क पड़ता है? तो क्‍या इन रिश्‍तों का पक्ष लेने वाले इन्‍हीं तर्को के साथ स्‍त्री वेश्‍यावृति, कॉलगर्ल आदि जैसे रिश्‍तों का भी समर्थन करेंगें. युरोप के कई देशों में तो ये कानूनी रूप से रोजगार के साधन है । फिर तो इसी तर्ज पर कहना होगा कि विश्‍व के कुछेक देशों में यह स्‍वीकार्य हैं तो हमारे देश में क्‍यों नहीं? अरे भाई, इससें तो देश की बेरोजगारी की समस्‍या अवश्‍य हल हो जाएगी.

मेरे एक मित्र ने न्‍यायालय के इस निर्णय पर टिप्‍पणी करते हुए कहा कि इस तरह क्‍या भविष्‍य में पत्‍नियों या पतियों की अदला-बदली करने अर्थात 'वाईफ स्‍वैपिंग या हस्‍बैंड स्‍वैपिंग' और पुरूष वेश्‍याओं अर्थात 'जिगेलों' को भी समाज मान्‍यता देगा?


लेकिन पहले ही मुकदमों के बोझ से जूझ रहे न्‍यायालय क्‍या इन रिश्‍तों के टूटनें से पैदा होने वाले विवादों का समाधान कर पाएंगें? इन रिश्‍तों से जन्‍में बच्‍चों को उनका हक दिलवा पाएंगें? खुदा-न-खास्‍ता मजे-मजे के लिए इन रिश्‍तों कों अपनानें वालें अगर अपने बच्‍चों को स्‍वीकार करने से ही इंकार कर दें तो उनका पालन-पोषण कौन करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा की शादी के सब्‍ज-बाग दिखा कर बलात्‍कार करने वाले बलात्‍कारी इसे लिव-इन-रिलेशनशिप का नाम दे दें?

गैर-जाति में विवाह की बात पर ही बिदक जानें व 'सम्‍मान की खातिर हत्‍या'तक कर देने वाला समाज बिन ब्‍याह के साथ रहने के इस युवा चोंचलें को कभी स्‍वीकार नहीं कर सकता. अब तो केवल यह देखना शेष रह गया है कि न्‍यायालय और हमारा समाज पश्चिम के इन सांस्‍कृतिक आतंकवादी हमलों को नियति मान कर स्‍वीकार करता जाता है या फिर भारतीय संस्‍कृति के संदर्भों की मिसाइलों से इसका मुँह-तोड़ जबाव देता है.


इसलिए हे गालिब रोता है क्‍या, आगे-आगे देखिये होता है क्‍या?


- अरविन्‍द पारीक

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

डर का सर्वे या सबै का डर

लीजिए जनाब एक सर्वे हुआ । अरे हुआ तो क्‍या हुआ सर्वे तो रोजाना ही होते रहते हैं । सर्वे हमारे देश के साथ-साथ 12 देशों के युवाओं को शामिल कर किया गया है । अरे तो इसमें अनोखा क्‍या है । हमारे देश के युवा विदेश भागनें की फिराक में लगे रहते हैं । अरे पुरी बात तो सुनों सर्वे में जो 12 देश शामिल किए गए वे थे –भारत, जर्मनी, फ्रांस, मेक्सिकों, ब्रिटेन, ऑस्‍ट्रेलिया, स्‍पेन, रूस, ब्राजील, अमेरिका, इटली और चीन । तो इसमें अपना इंडिया कहां हैं ? अरे भारत क्‍या इंडिया नही है ? ना मैं तो यह जानता हूँ कि हिन्‍दूस्‍तान गांवों में और इंडिया शहरों में बसता है । भारत शायद संविधान की मोटी किताब में बसता होगा । 


अरे छोड़ो बात तो सुनों । हां-हां सुनाओं आपका सर्वे क्‍या कहता है ? अरे सर्वे मेरा नहीं हैं, सर्वे तो किया है मैक्‍स बुपा हेल्‍थ इंश्‍योरेंस ने । जिसमें लोगों से पूछा गया कि उन्‍हें सबसे ज्‍यादा किससे डर लगता है ? तब तो उत्तर में युवाओं ने कहा होगा –हम किसी से नहीं डरते । अरे न... न... । तो फिर आतंक या जान जाने का डर होगा । अरे मेरे भाई जो डर निकला वह था बीमारी का डर । क्‍या बीमारी का डर ? युवा किसी बीमारी से डर गए । सुन कर ऐसा लगता है जैसे किसी बीमा एजेंट ने सर्वे किया हो ? अरे मेरे भाई सर्वे बीमा कंपनी ने ही तो किया है और सवाल युवाओं से किए गए हैं । अच्‍छा तब तो युवाओं को डरना ही था, ये बीमा वाले तो सभी को डराते ही हैं । तो आपनें सर्वे की बात नहीं सुननी । अच्‍छा.... अच्‍छा.... सुनाओं ।



तो सर्वे में पता चला कि हमारें युवाओं का दिल बड़ा कमजोर है । 25 फीसदी युवा मानते है कि उन्‍हें यह चिंता सताती है कि कहीं बुढ़ापे में उन्‍हें दिल का रोग ना हो जाए । कमाल है जिस रोग का डर युवावस्‍था में होता है और शत-प्रतिशत को हो सकता है, उससे बुढ़ापें में डर । बात कुछ हजम नहीं हो रही । मियां यदि बात को इसी तरह सुनोगे और बार-बार टोकोगे तो हजम नहीं होगी । ये युवा तो दिल की बीमारी से बीमार होने से डर रहे हैं । अच्‍छा तो बाकी 75 प्रतिशत तो निडर है । ये तो पता नहीं लेकिन 24 फीसदी बुढ़ापें में डायबीटीज होने से डरते हैं और 16 फीसदी को कैंसर से डर लगता है । चलो यह सुनकर अच्‍छा लगा कि कम से कम 35 प्रतिशत तो निडर है । अरे मैंनें ऐसा कब कहा ? तो फिर शत-प्रतिशत डरते हैं क्‍या ? ओफ्फों..... मुझे यह भी नहीं पता । तो फिर क्‍या पता है ? 


यही कि इन सभी 12 देशों के 34 प्रतिशत युवा कैंसर से और 23 प्रतिशत अल्‍जाइमर्स जैसी बीमारियों से डरते हैं । अरे भैया तो फिर डराते क्‍यूँ हो, बस इतना कह देते कि 43 प्रतिशत युवा इन देशों में निडर है । वे किसी भी बीमारी से नहीं डरते । 

 
हां यही समझों, लेकिन यह भी जान लों कि इस सर्वे में सभी 12 देशों के 12262 लोगों से वृद्धावस्‍था के बारे में भी जानकारी ली गई थी । मजेदार बात ये है कि इनमें से कई देशों के 65 वर्ष से अधिक आयु के 67 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपने को चुस्‍त-तंदुरूस्‍त मानते हैं बूढ़ा नहीं । तो फिर तुम्‍हारें पेट में दर्द क्‍यों हो रहा है । अच्‍छा है बुढे़ जवान और जवान बुढ़े हो गए हैं । लो यह भी जान लों 70 से 80 वर्ष के जवां क्‍या कहते हैं ? कहतें हैं कि दिल से अभी तो मैं जवान हूँ ।
जरूर अशोक कुमार की फिल्‍म देखी होगी शौकीन । 



अब चुप क्‍यों हो गए और कुछ नहीं है बतानें को । अरे कुछ तो बोलों । क्‍या बोलुँ ?  फिर कहोगें कि डरा रहा हूँ । नहीं .... नहीं....... अब कुछ नहीं कहूँगा । तो सुनों, सर्वे कहता है कि भारत के 53 प्रतिशत लोग बुढ़ापें को सहज भाव से लेते हैं और दार्शनिक अंदाज में कहते हैं कि एक न एक दिन तो सभी को बूढ़ा होना ही है । लेकिन बुढ़ापें की चिंता में समय से पहले ही बुढ़ा जाते हैं । जबकि इन देशों में 51 प्रतिशत बुढ़ापें का सामना करनें को तैयार नहीं हैं और 36 प्रतिशत ने तो अभी कुछ सोचा ही नहीं है बाकी इतनें बेफिक्र हैं कि जब जरूरत पड़ेगी तब सोचेंगें । तो अब बोलों क्‍या बोलते हों ? लग गई ना बुढ़ापें की चिंता । 



अरे नहीं मैं तो सोच रहा था कि यहां-वहां दिल लगानें वाले युवा समय से पहले बुढ़ा क्‍यों जाते हैं ? क्‍या मतलब ? तुम बीमा एजेंट हो गए हों या पेंशन प्‍लॉन बेच रहे हों ? अरे कभी दिल की बीमारी से डरातें हो कभी कैंसर से । जरा शरीर से कुछ मेहनत कराते रहों,  इसे चलाते-फिराते रहों । बस किसी चीज का डर नहीं रहेगा । तो क्‍या आतंकवाद, बम-धमाकों और सड़क पर दुर्घटनाओं का डर भी खत्‍म हो जाएगा ? मुझे क्‍या पता ?

 - अरविन्‍द पारीक

पाकिस्तान में बाढ़ शिक्षा बेज़ार

जब अचानक हमें कुछ धनराशि की आवश्‍यकता हो तो हम क्‍या करते हैं ? या तो कोई ऐसा काम तलाशतें हैं जहां से तत्‍काल कुछ अर्जित किया जा सके अथवा ऐसे खर्चो पर विराम लगाते हैं जिन्‍हें हम अपनी नजरों में विलासिता समझतें हैं । यदि फिर भी आवश्‍यकता की पूर्ति न हो तो हम किसी परिचित, किसी दोस्‍त या रिश्‍तेदार के आगे हाथ फैला देते हैं । लेकिन क्‍या कभी आपनें ऐसा किया है कि ऐसी आपातकालीन अवस्‍था में जब कुछ धनराशि की आवश्‍यकता हो तो आपनें अपनी उस आवश्‍यकता पर विराम लगाया हो जो आपका भविष्‍य बना सकती है । नहीं ना । लेकिन ऐसा हुआ है, और वह भी हमारे पड़ोस में ।

पाकिस्‍तान में भी हमारे देश की तरह अभूतपुर्व बाढ़ आई हैं । इस विनाशकारी बाढ़ के चलते पाकिस्‍तान की केन्‍द्र सरकार ने वित्तीय संकट का सामना करने के लिए विकास कोष में कटौती करने का फैसला लिया है । इस फैसले का परिणाम यह हुआ है कि उच्‍च शिक्षा आयोग को पिछले साल जहां 22.5 अरब रूपये का बजट मिला था वहीं अब इसे घटा कर 15.7 अरब रूपये कर दिया गया है । यानि विनाशकारी बाढ़ के चलते पाकिस्‍तान में शिक्षा का विनाश भी होना तय है । यह भी गौरतलब है कि स्‍वीकृत बजट में से केवल 1.5 अरब रूपये ही जारी किए गए हैं । यह जानकारी सभी समाचारपत्र व अन्‍य मीडिया के साधन दे रहे हैं ।

यहां सोचने वाली बात यह है कि पाकिस्‍तान के हुक्‍मरानों को विनाशकारी बाढ़ के चलते यदि सरकारी खर्च में कटौती करनी ही थी तो क्‍यों नहीं मंत्रियों के विदेशी दौरों, शाही पार्टियों, व्‍यर्थ में बर्बाद किए जा रहे हथियार खरीद के सौदों व आंतकवादियों को दी जा रही सहायता पर रोक लगाई गई । संभवत:  पाकिस्‍तान में भारत को सभी समस्‍याओं की जड़ के रूप में देखनें वाले चश्‍में पहनें बैठी सरकार को पाकिस्‍तान की ज्‍यादातर समस्‍याओं की जड़ शिक्षा की कमी दिखाई नहीं देती । इसका कारण संभवत: यह भी हो सकता हैं कि शिक्षित पाकिस्‍तान भारत विरोध के लिए एकजुट नहीं होगा । ऐसे में आंतकवादी व अलगाववादी ताकतें और एक इलीट पाकिस्‍तान कैसे अपनी रोटियां सेंक पाएगा ।

मेरा तो यही कहना हैं कि यह कटौती की कार्रवाई पाकिस्‍तान की मानसिकता को दर्शाती है । भारत में सरकार मदरसों से आगे निकल कर बच्‍चें शिक्षित हो पाएं व दुनिया से लोहा ले सकें की सोच रखती है लेकिन पाकिस्‍तान सरकार न केवल सरकारी शिक्षा प्रणाली को नष्‍ट करनें पर उतारू है बल्कि‍ विकास कार्यो को भी ठप्‍प कर देना चाहती है ।


क्‍या हम अपनें पड़ोस में धारावी जैसी एक अबुझ झुग्‍गी बस्‍ती को झेल पाएंगें, जिसकी अंधेरी गलियों में पनप रही अलगाववाद व आतंकवाद की आग हमें ही लीलनें को आगें न बढ़ जाएं ?  निस्‍:संदेह पाकिस्‍तान सरकार शिक्षा पर खर्च को बढ़ा कर ही पाकिस्‍तान को पाक-साफ बना सकती हैं व भारत के सानिध्‍य का लाभ उठाकर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत कर सकती है । बस इसके लिए सोच को बदलना होगा ।

- अरविन्‍द पारीक

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

आइये शोर मचायें

मुझे एक एसएमएस मिला । लिखा था –सभी को चेंज चाहिए, लेकिन कोई इसे लेकर नहीं आता ........ । कुछ अंतराल के बाद लिखा था - .... ये महान शब्‍द है ..... एक बस कंडक्‍टर के । लेकिन बात मजाक की नहीं है । वास्‍तव में हम सभी को चेंज चाहिए, परिवर्तन चाहिए ।


इसलिएभारत समेत दुनिया के 192 देशों ने वर्ष 2000 में संयुक्‍त राष्‍ट्र में वादा किया था कि वे 2015 तक 8 लक्ष्‍यों –भुखमरी और गरीबी को खत्‍म करना, सभी बच्‍चों को प्राइमरी शिक्षा उपलब्‍ध करवाना, महिला सशक्तिकरण और लिंग समानता को बढ़ावा देना, बाल मृत्‍यु दर, मातृत्‍व मृत्‍यु दर को काबू मे लाना, एचआईवी, मलेरिया जैसी बीमारियों से लड़ना, पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करना और विकास के लिए एक विश्‍वव्‍यापी साझेदारी तैयार करना –को हासिल कर लेंगें ।  इन्‍हें संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने मिलेनियम डवेलपमैंट गोल (एमजीडी) या विकास लक्ष्‍य नाम दिया है । निस्‍:सन्‍देह यदि इन लक्ष्‍यों को हासिल किया जाता है तो देश में व्‍यापक परिवर्तन दिखाई देगा ।


लेकिन समस्‍या वही बस कंडक्‍टर वाली है कि इस परिवर्तन को लाएगा कौन ? बहुत सोचने विचारनें के बाद मुझे ख्‍याल आया कि हमारे देश में इस तरह का परिवर्तन दो ही वर्ग ला सकते हैं और वे हैं हमारे मंत्री-नुमा नेता और वरिष्‍ठ नौकरशाह । क्‍योंकि देश का सारा काम भले ही राष्‍ट्रपति के नाम से होता हो, क्‍या होना है व कैसे होना है ये सिर्फ और सिर्फ हमारे मंत्री-नुमा नेता और वरिष्‍ठ नौकरशाह ही निर्धारित करते हैं । इसलिए मेरे सौभाग्‍य या दुर्भाग्‍य से मैं ऐसे ही एक मंत्री-नुमा नेता और वरिष्‍ठ नौकरशाह से एक साथ मिला और पूछ बैठा –एमजीडी हासिल करने के लिए अब तो केवल पांच वर्ष ही बचे हैं और दस वर्ष बीत चुके हैं । क्‍या आप बताएंगें की हमारे देश की इस मामलें में क्‍या स्थिति हैं और क्‍या हम लक्ष्‍य पा लेंगें ?


दोनों ने एक-दूसरें के चेहरे की और देखा फिर मंत्री-नुमा नेता बोले देखिए हम जो भी कहेंगें वह हम दोनों का सम्मिलित जवाब है आप किसी एक का नाम ना लिखिएगा । क्‍योंकि देश की नैया को डुबोने व पार लगानें में हम साझेदार हैं । मैंनें हॉं में सिर हिला दिया । उन्‍होंनें जो कहा वह अक्षरश: एक साथ आपके सम्‍मुख है - आपकों पता ही है संयुक्‍त राष्‍ट्र हमें जगाने के लिए 'स्‍टेंड अप, टेक एक्‍शन, मेक नाइज' इवेंटस के अंतर्गत यूएन मिलेनियम कैंपेन के कार्यक्रम हमारे देश में कर रहा है । एक कार्यक्रम पुराने किले में कर चुका है । देश के कई हिस्‍सों में कार्यक्रम किए जा रहे हैं । हमनें भी कमर कस ली है । देख रहे हैं कि युएन कितनी राशि देता है व उसमें से कितनी राशि 'हमारी' भुखमरी और गरीबी मिटा सकती है । बच्‍चों को प्राइमरी तक क्‍या हमनें तो पूरी स्‍कूली शिक्षा के प्रबंध कर दिए हैं । कोई बच्‍चा अब फेल नहीं किया जा सकता । हो सका तो बच्‍चों को घर बैठे ही स्‍कूली शिक्षा पा लेने के प्रमाणपत्र दे दिए जाएंगें । चाइनीज सीख कर बच्‍चें चीं-चीं चाओं करेंगें तो विश्‍व को हमारी प्रगति का पता चलेगा भले ही वे ढंग से हिन्‍दी लिख-बोल ना पाएं । महिलाओं को सशक्‍त बनानें के लिए और लिंग समानता को बढ़ावा देने के लिए हम लिंग जांच अनिवार्य करने जा रहे हैं जब तक की स्‍त्री-पुरूष की संख्‍या बराबर न हो जाए । भले ही महिला आरक्षण ना कर पा रहे हों । बाल मृत्‍यु दर, मातृत्‍व मृत्‍यु दर को काबू मे लाने के लिए आंकड़ों की दोबारा जांच की जा रही है । हो सकता है उनमें त्रुटि हो । आप देखेंगें कि ये दर शीघ्र काबु में आ जाएंगी । एचआईवी, मलेरिया जैसी बीमारियों से लड़नें के लिए हम अमेरिका, युरोप व पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश जैसे देशों से पर्यटकों व मच्‍छरों के आवागमन पर पाबंदी लगा देंगें । पर्यावरण संरक्षण के लिए हम प्रत्‍येक घर में जापानी बोनसाई पद्धति से जंगल या पेड़-पौधे लगाना अनिवार्य बनानें संबंधी कानून ला रहे हैं और विकास के लिए एक विश्‍वव्‍यापी साझेदारी का कार्य तो यूएन के सहयोग के बिना हो ही नहीं सकता । फिर भी हमें विश्‍वास है कि हम 2015 तक एमजीडी को पानें के लिए तैयार हैं ।



यह जानकार मुझे भी लगा कि शायद संयुक्‍त राष्‍ट्र के 'स्‍टेंड अप, टेक एक्‍शन, मेक नाइज' इवेंटस के अंतर्गत यूएन मिलेनियम कैंपेन के कार्यक्रमों से हमारी नींद खुल चुकी है और हम परिवर्तन ले ही आएंगें । तभी तो यूएन भी शोर मचानें के लिए संगीत के कार्यक्रम आयोजित कर रहा है ।

 - अरविन्‍द पारीक

रविवार, 12 सितंबर 2010

यह खबर कैसे हो सकती है ?

हाल ही में माननीय सांसद श्री वैश्‍य ने संसद में हिन्‍दी में पूछे गए प्रश्‍न का अंग्रेजी में जबाव दिए जाने की बात का पुरजोर विरोध किया था.  लेकिन एक-आध खबरिया चैनल व समाचार-पत्रों को छोड़ कर किसी भी खबरिया चैनल या समाचारपत्र में इस खबर की दो पंक्तियां भी सुननें या पढ़नें को नहीं मिली. लेकिन टवीटर पर कौन वीआईपी अंग्रेजी में कैसे चहचहाया इसे लगभग सभी चैनल व समाचारपत्र दिखा रहे हैं. भले ही वे हिन्‍दी की रोटी खा रहे हों.

 

खैर इस बारे में और बात करने से पहले, आप यदि हिन्‍दी भाषा से परिचित हैं व देश में इसका विकास चाहते हैं तो ना जाने कितनी बार आपने संविधान के अनुच्‍छेद 343 का अध्‍ययन किया होगा जो बताता है कि भारत संघ की राजभाषा हिन्‍दी व लिपि देवनागरी होगी तथा भारतीय अंकों के अंतर्राष्‍ट्रीय रूप का प्रयोग किया जाएगा. आपने यह भी पढ़ा होगा कि संविधान के प्रारंभ से पन्‍द्रह वर्ष की अवधि तक जिन कार्यो के लिए ऐसे प्रारंभ से पहले अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहा है उन सभी कार्यो के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहेगा.

 

मैंनें सोचा चलिए उन सभी कार्यो की जानकारी जुटाते हैं कि ऐसे प्रारंभ से पहले अंग्रेजी का किन-किन कार्यो के लिए प्रयोग किया जाता रहा है. पहले तो नेट को ही खंगाल डाला. बहुत सी नई बातें पता चली लेकिन वह सूची कहीं नहीं मिली जिनमें उन कार्यो का जिक्र हो जो संविधान लागू होने से पहले अंग्रेजी में किए जाते थे या जिनमें अन्‍य किसी भारतीय भाषा का प्रयोग किया जाता था. फिर कुछेक बुजूर्ग विद्वानों से जानकारी चाही कि क्‍या उनकी जानकारी में ऐसी कोई सूची थी. लेकिन यहां भी निराश होना पड़ा. अलबत्ता इतना अवश्‍य हुआ कि वे अपनी याददाश्‍त के बल पर व माता-पिता से सुनें वे कार्य गिनानें लगें जो ऊर्दू या फारसी में किए जाते थे. पुस्‍तकॉलय आदि की खाक छानने पर कुछेक कार्यो की भाषा का उल्‍लेख तो अवश्‍य कई स्‍थानों पर पढ़ा. लेकिन मैं वह सूची नहीं खोज पाया जिसमें यह उल्‍लेख मिले कि उन सभी कार्यो में कौन-कौन से कार्य आते थे.

 

अत: मैं समझ गया कि ऐसी कोई सूची बनाई ही नहीं गई थी. अर्थात संविधान में पंद्रह वर्ष की जो शर्त रख कर/लगा कर हिन्‍दी को विकलांग बनाया गया था उसके साथ-साथ बैशाखियां भी हटा दी गई थी और फिर इसी अनुच्‍छेद के खंड-3 में पंद्रह वर्ष बाद भी कानुन बना कर अंग्रेजी के प्रयोग को सुनिश्चित करने का अवसर देकर हिन्‍दी भाषा की राजभाषा के रूप में स्‍थाई विकलांगता का बंदोबस्‍त भी कर दिया गया था.

 

इसी खोज के दौरान संविधान के अनुच्‍छेद 120 तथा 210 पर नजर गई. तो देखा कि इन अनुच्‍छेदों में क्रमश: संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा तथा विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा का उल्‍लेख है - भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद (अनुच्‍छेद 210 में यहां विधान-मंडल शब्‍द है) में कार्य हिंदी  में या अंग्रेजी में किया जाएगा. दोनों ही अनुच्‍छेदों के खंड (2) कहते हैं कि जब तक संसद (अनुच्‍छेद 210 में यहां विधान-मंडल शब्‍द है) विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो   "या अंग्रेजी में"  शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो.

एक आस बंधी की शायद ऐसे उपबंध न किए गए हों और "या अंग्रेजी में" शब्‍दों का उसमें से लोप हो गया हो व संसद और विधान मंडलों की भाषा सिर्फ हिन्‍दी या राज्‍य की राजभाषाएं ही रह गई हों. लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. हमारे देश में किसी भी आवश्‍यक विधि के निर्माण में देरी हो सकती हैं लेकिन राजभाषा की स्‍थाई विकलांगता के लिए विधि निर्माण में कभी भी देरी नहीं हुई.

यहां संविधान का उल्‍लेख करने का कारण है हमारी मानसिकता के बारे में बताना. हम कितने विद्वान थें कि संविधान के निर्माण के समय ही भविष्‍य के दर्शन कर लिए थे. हमें पता था कि भविष्‍य केवल अंग्रेजी का है, हिन्‍दी का नही. इसलिए हमनें संविधान में ऐसे प्रावधान किए.

अब प्रारंभ में उल्लिखित समाचार के बारें में लिखनें का कारण, वह यह है कि 14 सिंतबर का दिन फिर आ गया हैं. जिसे हम और आप हिन्‍दी दिवस के रूप में जानते हैं. लेकिन हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हिन्‍दी के बारे में नियमों की अवहेलना कौन कर रहा है ? यदि किसी सरकारी कार्यालय में राजभाषा हिन्‍दी के नियमों की अनदेखी हो रही है तो फिर यह खबर कैसे हो सकती है ? खबर तो केवल ऐसी सनसनी बन सकती है जो बिक सके. या फिर हमारे अंग्रेजीदां संवाददाताओं को लुभा सके. यह खबर कैसे हो सकती है कि हिन्‍दी दिवस फिर आ गया है लेकिन राजभाषा नियमों की अवहेलना हो रही है व राजभाषा के रूप में हिन्‍दी आज भी सक्षम क्‍यों नहीं बन पा रही है ? कारण केवल इतना है कि राजभाषा अधिनियम व नियमों की अवहेलना के लिए दंड का प्रावधान ही नहीं है. इसलिए हिन्‍दी पर खबर कैसे हो सकती है ?

 

- अरविन्‍द पारीक

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

व्यवहार की पाठशाला

कल जब घर आनें के लिए बस में चढ़ा तो देखा कि एक सीट को छोड़कर सारी सीटें भरी हुई है,और यह सीट भी महिलाएं शब्‍द के नीचे वाली हैं । इसलिए उस सीट को देखकर भी अनदेखा कर दिया । लेकिन मेरे साथ ही उस बस में चढ़ें एक कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन, जो देखनें से ही बीमार लग रहे थे, उस खाली सीट पर जा कर बैठ गए । उन सज्‍जन के महिला-सीट पर बैठनें के बाद अगले बस-स्‍टॉप से एक लड़की गोद में बच्‍चा लिए बस में आ गई । सभी महिला-सीटों पर महिलाएं ही बैठी थी, केवल उस एक सीट को छोड़कर, जिस पर वे बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन बैठे थे । उस लड़की को गोद में बच्‍चा लिए देखकर वे सज्‍जन अपनी सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्‍तता साफ झलक रही थी । वह लड़की समझ गई थी कि वे सज्‍जन उसके लिए सीट छोड़नें का प्रयास कर रहे हैं । इसलिए उसनें उन्‍हें विनम्रता से बैठे रहने के लिए कहा । उस लड़की का यह विनम्र व्‍यवहार देखकर एक अन्‍य सज्‍जन जो सामान्‍य सीट पर बैठे थे, खड़े हो गए और अपनी सीट उसे बैठनें के लिए दे दी । ना-नुकुर करते-करते अंतत: वह लड़की अपने गोद में उठाए बच्‍चें के साथ उस सीट पर बैठ गई । अभी चार-पॉंच बस-स्‍टॉप ही निकले थे कि अब एक जींस-टॉप पहनें मंहगा फोन हाथ में उठाएं एक लड़की बस में आ गई । उसनें उन बीमार कृशकाय प्रौढ़ सज्‍जन को वहां बैठे देखा तो झट से उनकी सीट के पास आकर उनसे महिला सीट होनें व खड़े होने का अनुरोध करने लगी । बेचारे बीमार सज्‍जन उस सीट से खड़े होने का प्रयास करनें लगें लेकिन अशक्‍तता के कारण खडे़ नहीं हो पा रहे थे । उनके साथ बैठी महिला ने उन्‍हें बैठे रहनें के लिए कहते हुए उस लड़की को उनकी असमर्थता व बीमारी का हवाला दिया और उसकी समर्थता का भान कराया । लेकिन वह लड़की उन 'आंटी' को डॉंटकर उन बीमार सज्‍जन से उठनें के लिए कहनें लगी । वे सज्‍जन फिर खड़ें होनें का प्रयास करने लगे । इस पर मुझसे व अन्‍य कई यात्रियों से सहा नहीं गया । सब उस लड़की को समझानें लगें । उम्र का व बस में ज्‍यादा भीड़ न होने का हवाला भी दिया । लेकिन जैसे उस पर कोई असर नहीं होना था, न हुआ । वह कंडक्‍टर को शिकायत करने लगी । जब कंडक्‍टर उसे समझानें लगा तो उसकी भाषा अब किसी पढ़ी-लिखी समझदार भारतीय लड़की की जगह एक असभ्‍य, गँवार लड़की की हो गई थी । कुछ देर बाद ही मेरा स्‍टॉप आ गया तो मैं बस से उतर गया ।


अब दूसरी घटना 'मैं अभी बाजार से आ रहा हूँ । एक दूकान पर मैं कुछ सामान खरीद रहा था। वह दुकानदार राखियां भी बेच रहा था । मैंनें देखा दो लड़कियां राखियां खरीद रही हैं । पहली, दूसरी को एक रेशमी धागा लेने के लिए कह रही थी लेकिन दूसरी वाली एक बड़ी सी चमकती हुई मंहगी-सी राखी खरीदना चाह रही थी । इसलिए उसनें पहली वाली लड़की को तर्क दिया कि मैं तो यही राखी खरीदूँगी, ताकि जब भैया को बॉंधूगी तो भैया से महंगा वाला स्‍मार्ट फोन मॉंग सकूँ । इस पर पहली वाली लड़की बोली और भैया ने महंगा वाला स्‍मार्ट फोन ना दिया तो । थोड़ी देर असमंजस में पड़ी वह लड़की बोली तो मैं भैया को राखी ही नहीं बाँधूगी । इस पर पहली वाली लड़की बोली इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्‍हें अपनें भाई से प्‍यार नहीं हैं । तु राखी केवल गिफ्ट लेनें के लिए बॉंधती हैं । इस पर वह तुनक कर बोली और किसलिए होता है यह त्‍यौहार, गिफ्ट लेने के लिए ही तो मैं राखी खरीद रही हूँ । नहीं तो घर में बहुत धागे पड़ें हैं । उनकी बात सुनकर मैं तो चला आया ।'

फिर सोचनें लगा कि क्‍या वजह हो सकती हैं इन युवतियों की इस सोच की? कहीं एकल परिवारों में रहनें का खामियाजा तो नहीं है यह सोच?  शायद शहरी जिंदगी की आपाधापी में बच्‍चें दादा-दादी, ताऊ-ताई व चाचा-चाची के निरंतर मिलनें वाले प्‍यार-दूलार व उसके साथ व्‍यवहार के ज्ञान से वंचित हो रहे हैं । एकल परिवार का विचार और वह भी नौकरीपेशा मॉं-बाप हो तो आजकल की युवा पीढ़ी त्‍यौहार का अर्थ ही भूल गई हैं । ये भविष्‍य की माताएं अपनें बच्‍चों को क्‍या संस्‍कार देंगी ? लेकिन फिर उस लड़की के व्‍यवहार का ख्‍याल आया जो गोद में बच्‍चा लिए आई थी ले‍किन व्‍यवहार में कितनी विनम्रता व संस्‍कार झलक रहे थे हालांकि उम्र दोनों की उम्र एक जैसी लग रही थी ।'


अच्‍छा, आप ही बताइयें कि क्‍या इन दोनों घटनाओं में लड़कियों के व्‍यवहार में कहीं से संस्‍कारों की झलक मिलती हैं ? क्‍या ऐसा ही व्‍यवहार आजकल के कुछेक युवकों में भी नहीं झलकता है ? क्‍या महिला सीट या आरक्षित सीट का यह अर्थ हैं कि उस पर बैठे किसी बुढ़े, अशक्‍त, बीमार व्‍यक्ति या बच्‍चें कों उठा दिया जाए, भले ही उसे कितनी भी परेशानी हो ? क्‍या आपकों लगता है कि हमारी युवा पीढ़ी त्‍यौहारों के वास्‍तविक रूप-रंग को भूलती जा रही है और उसे आधुनिकता के नाम पर बिगाड़ रही है ?


प्रश्‍न तो अनेक हैं । लेकिन सोचना हमें ही हैं कि क्‍यों नहीं हम अपनें बच्‍चों को त्‍यौहार, परिवार व रिश्‍तों के वास्‍तविक महत्‍व को समझातें ? क्‍यों हम उन्‍हें मनचाहा करनें की छूट देते-देते संस्‍कारहीन बना रहे हैं ? क्‍या इसके लिए व्‍यवहार की पाठशाला लगानी होगी ?

- अरविन्‍द पारीक

बुधवार, 11 अगस्त 2010

सफेद और काले कौओं की कहानी

आज काले कौओं ने सभा बुलाई थी । कार्यसूची में बस एक ही विषय था –किसी देश में सफेद
कौओं में से धनी-मानी दो कौओं द्वारा यह निश्‍चय किया जाना कि वे अपनी आधी संपति
दान करेंगें । उन्‍होंनें अपने निश्‍चय में उस देश के कुछ अन्‍य कौओं को भी शामिल
कर लिया था कि वे भी अपनी आधी संपति दान करें । इस तरह लगभग 13 सफेद कौए यह निश्‍चय
कर चुके थे ।


अब उन दोनों कौओं को लगा कि यदि हमारी संपति आधी हो जाएगी तो संपूर्ण विश्‍व में हम
बहुत पीछे हो जाएंगें । वे जानते थे कि अनेकों काले कौओं के पास भी अथाह संपति है ।
इसलिए उन्‍होंनें काले कौओं को भी अपनी संपति दान करने का न्‍यौता भेज दिया ।


यह काले कौओं के प्राचीन संस्‍कार थे कि वे सफेद कौओं को सदैव अपने से श्रेष्‍ठ
मानते थे । वे उनकी बात कभी नहीं टालते थे या फिर टाल नहीं पाते थे, क्‍योंकि डरते
थे । यह डर भी पिछली पीढ़ी से सुना डर था जिसनें सदैव सफेद कौओं की प्रशंसा ही की
थी व उनकी क्रूरता की एक से बढ़कर एक कहानियां भी सुनाई थी । लेकिन इस तरह की उनकी
वह क्रुरता काले कौओं के लिए एक आवश्‍यकता नजर आती थी ।


वे सफेद कौओं की भाषा व बोली को भी श्रेष्‍ठ मानते थे । इसलिए जब भी किसी गंभीर
विषय पर चर्चा करते थे तो केवल सफेद कौओं की भाषा में । उस समय उनकी बात को समझ
पाना सबके बस की बात नहीं होती थी ।


खैर, जब सफेद कौओं का न्‍यौता काले कौओं को मिला तो वे असमंजस में पड़ गए । क्‍या
करें, क्‍या न करें ? काले कौए पहले ही अपने कई धर्मार्थ ट्रस्‍ट चलाते थे ।
उन्‍होंनें तो कभी सफेद कौओं को ऐसा करने के लिए नहीं न्‍यौता था । फिर सफेद कौए
ऐसा क्‍यों कर रहे हैं ? सभी को आश्‍चर्य था । हां, कभी-कभी सफेद कौए अपने किसी
फाउंडेशन के नाम से काले कौओं के देश में कुछ धन दे दिया करते थे । लेकिन इसके बदले
में काले कौओं ने भी कोई कसर ना रखी थी । वे अपने यहां के सबसे समझदार, चतूर,
विद्वान व सर्वाधिक पढ़े-लिखें काले कौओं को बिना किसी रोक-टोक के सफेद कौओं की
सेवा में जाने देते थे । भले ही काले कौओं ने उनकी विद्वता व ज्ञान की संवृद्धि पर
कितना ही खर्च किया हो ।

सफेद कौए इन्‍हीं के दम पर फल-फूल रहे थे । फिर भी बार-बार अपने देश में ऐसी
व्‍यवस्‍था करने का ढिढ़ोरा पीटा करते थे कि वे काले कौओं को इतनी आसानी से अपने
देश में नहीं आने देंगें । बेचारे काले कौए इतना सूनते ही डर जाते थे । फिर सफेद
कौए उन्‍हें जिस कीमत पर चाहते थे उस कीमत पर पा लेते थे । क्‍योंकि वे जानते थे कि
जो सबसे समझदार, चतूर, विद्वान व सर्वाधिक पढ़े-लिखें काले कौए हैं वे किसी भी कीमत
पर सफेद कौओं के देश में काम करने को तैयार थे ।


इसी पर सभा विचार कर रही थी । सभा में बातचीत सफेद कौओं की बोली में हो रही थी ।
इसलिए कुछ काले कौए बहुत परेशान थे । बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी । उनमें से एक
कौए ने अंतत: हिम्‍मत की और चिल्‍लाया कि यदि बातचीत इसी तरह सफेद कौओं की बोली में
होगी तो वह सभा का बहिष्‍कार कर देगा । बस इतना सुनना था कि वह सभा सब्‍जी बाजार बन
गई और ना जाने किन-किन भाषाओं और बोलियों में सभी काले कौए चिल्‍लानें लगे थे । ऐसे
में सभा में कुछ निर्णय ले पाना संभव ही ना था । सभापति ने सभा समाप्‍त कर दी ।
किसी ने इस घोषणा को भी नहीं सुना । लेकिन सभी काले कौए अपनी मर्जी से एक-एक कर सभा
से खिसक लिए ।

मीडिया वाले काले कौओं में भी दो जमात बन गई थी । एक सफेद कौओं की प्रशंसा में
कसीदे पढ़ रही थी और दूसरी उस काले कौए का गुणगान कर रही थी जिसने सफेद कौओं की
बोली में बातचीत को नकारा था । लेकिन रोचक बात ये थे कि अब चर्चा का विषय सफेद कौओं
द्वारा आधी संपति दान करने का निश्‍चय नहीं था । बल्कि चर्चा इस बात पर हो रही थी
कि उस आधी संपति से क्‍या-क्‍या किया जा सकता हैं । चर्चा दोनों ही पक्ष कर रहे थे
। इसमें कभी-कभी धनी काले कौओं की संपति की चर्चा भी हो जाती थी । पिछले एक सप्‍ताह
से बस यही कार्यक्रम, यही समाचार प्रस्‍तुत किए जा रहे थे । बेचारें मनोरंजन के लिए
तरस रहे काले कौओं को ना चाहते हुए भी निरंतर इस चर्चा का रसपान करना पड़ रहा था और
उधर नई-नई उपलब्धियां हासिल करने वाले कौए परेशान थे कि मीडिया को कैसे अपनी
उपलब्धि की जानकारी दें ।

सफेद कौओं को जब काले कौओं की सभा का समाचार मिला । तो वे समझ गए कि घी टेढ़ी उंगली
से निकालना पड़ेगा । उन्‍होंनें तत्‍काल अपना विशेष दूत एक अदना-सा सफेद कौआ काले
कौओं के देश में भेज दिया । पलक-पॉंवड़े बिछाए काले कौओं ने उसे इतना सम्‍मान दिया
कि वह जब अपने देश लौटा तो स्‍वयं को शेष विश्‍व का राष्‍ट्राध्‍यक्ष समझनें लगा और
बोल उठा कि काले कौए अपनी आधी संपति दान करना मान गए हैं ।

यह बयान काले कौओं के देश में सुनामी से भी बड़ा कहर बन कर आया । काले कौओं की
सरकार नें विपक्ष के देश को बेच देने के आरोपों से घबरा कर अपनी सफेद कौवी नेत्री
से सलाह मॉंगी और फिर सभा में घोषणा कर दी कि काले कौए अपनी आधी संपति अभी दान नहीं
करेंगें क्‍योंकि इस देश में अब गरीब कौओं की संख्‍या धनी-मानी कौओं से कम हैं ।
इसलिए जब तक यह सरकार इस संख्‍या को धनी-मानी कौओं की संख्‍या से ज्‍यादा नहीं कर
लेगी तब तक चैन से नहीं बैठेगी ।


इस घोषणा से बहुसंख्‍यक मध्‍यमवर्गीय कौओं में से अनेक कौओं की सांस रूक गई ।
क्‍योंकि अब जो होना था वह सिर्फ और सिर्फ इन कौओं के विरूद्ध ही होना था ।


- अरविन्‍द पारीक

बुधवार, 28 जुलाई 2010

मन की बात सबके साथ या बला की आग ?

शीर्षक पढ़ कर आप सोच रहे होगें कि मैं किस बला की आग की बात कर रहा हूँ । अरे भाई
ये बात है इस ब्‍लॉग की । दरअसल हुआ यह कि जब मैंनें अपने मित्र को अपने इस ब्‍लॉग
के बारे में बताया तो वो बोले भैया आप भी बला की आग लिखनें चले हैं ।

मैंनें उन्‍हें समझाया वेब लॉग के संक्षिप्त रूपांतरण को ब्लॉग कहा जाता है ।

ब्‍लॉग कुछ भी हो सकता है - आपकी व्‍यक्तिगत डॉयरी या एकदैनिक टिप्‍पणी का मंच या
एक सहयोगियों का मिलाजुला स्‍थान या एक राजनैतिक सोपबॉक्स या ताजा समाचार देने वाला
आउटलेट या उपयोगी लिंक का एक संग्रह या अपने निजी विचार या दुनिया के लिए प्रदर्शित
ज्ञापन अर्थात एक ऐसी वेबसाइट जहां ब्‍लॉग लेखक की रूचि अनुसार उसकी पसंद का संग्रह
मौजूद रहता है । ब्‍लॉग एक सोशल नेटवर्किग साईट का काम भी करता है । जहां आपसे
अनेको लोग जुड़ जाते है । वो आपको पसंद या नापसंद करते है ।

अरे मेरे भाई इन बातो को रहने दीजिए । ये बातें तो किसी भी साईट पर लिखी मिल जाएंगी


आपकी बात का लब्‍बोलुआब यही तो हुआ ना कि ब्लॉगिंग के लिए आप बला की आग जलाना
जानते है तो आप ब्‍लॉग लेखक बन सकते है । आप इस बला की आग के साथ ब्‍लॉग लिख सकते
हैं ।

लेकिन यह बला की आग है क्‍या ? किसी बला या मुसीबत की बात कर रहे हैं आप ?
इस दुनिया में इतनी बलाएं या मुसीबतें है कि आप हर घंटे पर एक ब्‍लॉग लिख सकते हैं
। महंगाई से लेकर सगाई तक, पिटाई से लेकर चटाई तक, लुगाई से लेकर भौजाई तक, आलोचना
से लेकर बधाई तक यदि यह भी कम लगता है तो राजा से रंक तक, जनता की पसंद तक,
राजनैतिक ख्‍याल तक, फैशन के बवाल पर, फिल्‍मी सवाल तक, देश पर विदेश पर, गांव पर
खलिहान पर, पान की दुकान पर, क्रिकेट की बॉल पर, फुटबाल की चाल पर, हॉकी में सेक्‍स
पर, या सेक्‍स की हॉकी पर, वर्दी खाकी पर, देश की सीमा पर, सीमा के पार तक, सैनिको
के हाल तक, तेल-घी की मिलावट पर, माथें की सलवट पर, नेता के तलवों पर, नैतिकता की
अनैतिकता पर, क्रीमी लेयर की अधिकता पर, मंदिर की बात पर, मस्जिद के ख्‍याल पर,
सीबीआई की चाल पर, संसद के हाल पर .....

बसबस मैं समझ गया कुल मिलाकर यह क्‍यों नहीं कहते की मन की बात सबके साथ की जा सकती
हैं ।

ना भाई ना, मैं शब्‍दों पर गौर करता हूँ इसलिए ब्‍लॉग को बला की आग कहता हूँ ।

अच्‍छा आप लोग ही बताइये कि क्‍या ठीक है मन की बात सबके साथ या बला की आग ?

अरविन्‍द पारीक